संतवचनअनुवाद

सं-अनुवा

श्री

1

मैं उन लोगों से सम्बन्ध नहीं रखता,

जो विशुद्ध शुभ के होते अशुभ चुनते हैं

मैं गोपालकृष्ण प्रभु के लिए पागल हूँ।

(वृत्त - इंद्रवज्रा, अक्षरे -11, गण - )

व्यापे जगा सत्य पवित्र जे ची     निंदून त्या जे विपरीत घेती

त्यांची नको संगत क्लेशकारी    तो सावळागे मज वेड लावी।।

2

(वृत्त - मन्दाक्रांता , अक्षरे- 17, गण- )

नास्था धर्मे  वसुनिचये नैव कामोपभोगे

यद्यद्भव्यं भवतु भगवन् पूर्वकर्मानुरूपम्।

एतत् प्रार्थ्यं मम बहुमतं जन्मजन्मान्तरेपि

त्वत्पादाम्भोरूह्युपगता निश्चला भक्तिरस्तु।।

(वृत्त - मंदाक्रांता , अक्षरे- 17, गण- )

धर्मामध्ये रुचि मजला द्रव्य कामोपभोगी

होवो ते ते नशिबि लिहिले  पूर्व-कर्मानुसारी

आहे देवा विनति तुजला, एक ही अंतरीची

जन्मोजन्मी अढळ असु दे, भक्ति ह्या पादपद्मी।।

3

(वृत्त - माल्यभारा, विषम चरण -अक्षरे-11,गण- , सम चरण- अक्षरे-12, गण- )

दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो। नरके वा नरकान्तक प्रकामम्

अवधीरित शारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि।।

(वृत्त - माल्यभारा, विषम चरण -अक्षरे-11,गण- , सम चरण- अक्षरे-12, गण- )

अवनी असु दे असोचि स्वर्ग असु दे मी नरकात त्याची घोर

भय दावि मला जरी कृतांत। मरणप्राय चि यातना असोत। - - -

जरि नश्वर देह हा पडेल प्रभु मी तव पाउले स्मरीन

कमले शरदातलीच रम्य पद हे कोमल रे तसे तुझेच।।

4

यों पवित्र होकर जब हम फूलों,

गीतों से पूजा

और हृदय में ध्यान करते

मथुरा के बालक मायन का,

पवित्र महान् यमुनाधिपति का।

ग्वाल-बाल के रूप में ज्योति पुञ्ज,

माताकी गोद उज्ज्वल

करनेवाले दामोदरन् का।

नष्ट हो जाते पूर्व भावी कुकर्म,

जैसे अग्नि से भस्म हो जाता कपास।

हे एलोरेम्बावाय!!

(मात्रा वृत्त -सूर्यकान्त / समुदित मदना, मात्रा- 27, - 8,8,11)

पावन होउन देह मनाने, सुमनांजलि अर्पुनी

आळविते मी तन्मयतेने, नाव तुझे श्रीहरी।

पावनतेची मूर्ति निरंतर, राहे मम अंतरी

मथुरेचा मायावी बालक, मनमोहन श्रीहरी।

पावन मंगल महान जीवन, तुझेच यमुनापती

गोप चिमुकला व्रजभूमीचा, भास्कर तेजोनिधी।

जन्म देउनी धन्य देवकी, धन्य यशोदा जगी

बांधुन ठेवी दाव्याने ती, निराकार तो हरी।

पर्वत जळती पापांचेही, मुकुंद स्मरता मनी

जळून जाती ढीग रुईचे, अनल स्पर्शता क्षणी।।

हे कल्याणकारी हरी!!

(अनल - अग्नी)

5

एक माता के पुत्र के रूप में जन्मे,

एक ही रात में छुपाकर

दूसरी माता के द्वारा लालित- पालित,

कंस-हृदय में धधकती चिर अग्नि स्वरूप,

मल्ल तुमने उसकी सभी योजनाओंको,

नष्ट कर दिया।

हम, लालायित हो तुम्हारे पास आये हैं।

और यदि तुम कृपा करो,

तो तुम्हारे हम गुणगान करें,

जो लक्ष्मीको अतिप्रिय हैं।

तुम्हारे ऐश्वर्य काभी,

जिससे हमारे दुःख दूर होंगे।

हे एलोरेम्बावाय!!

 (मात्रा वृत्त -सूर्यकान्त / समुदित मदना, मात्रा- 27, - 8,8,11)

पुत्र होउनी जन्म घेइ जो , देवकीच्या उदरी

रातोरातचि पोचविले ज्या, गुपचुप गोकुळ-घरी।

वाढविला जो यशोमतीने, लाडाने श्रीहरी

कृष्ण कृष्ण ही आग धधकती, जाळी कंसा उरी।

कंसाची ती दुष्ट खलबते, उधळुन लावी पुरी

बाल मल्ल तो मोहवी मजला, राही नित अंतरी।

मोहुन तुझिया पराक्रमाने, अचंबीत होउनी

आले मी रे तुझिया चरणी, कृपा करी मजवरी

कमलापति हे कमलनयन तू, करिते तव मी स्तुती

दुःख हरी हे भवभयहारी, तारी मज संकटी।

हे कल्याणकारी हरी!!

6

काष्ठ में अग्नि के समान, दूध में मख्खन की तरह,

ज्योतिस्वरूप परमात्मा सब में छिपा है।

प्रेम की मथनी लगाओ और बुद्धिकी डोर,

और मथो, प्रभु तुम्हे धन्य करेंगे दर्शन देकर।।

(वृत्त - इंद्रमाला/उपजाति, अक्षरे - 11, गण- / )

काष्ठात अग्नी जवं गुप्त राहे दुधात लोणी मिसळून राहे

तैसेची ज्योतिर्मय ब्रह्म देही सदैव साक्षी असते क्रियांसी।

ते लाभण्या ब्रह्म प्रकाशरूपी रवी करावी अनुराग रूपी

बाधून त्यासीच विवेक रज्जू। सवेग त्यासी घुसळी नरा तू।

त्यातून येता प्रभुरूप लोणी प्रभुकृपे जीवन धन्य होई।।

7

वे हमारी माता, पिता, भाई और बहन हैं,

त्रिलोक के स्रष्टा, देवोंके प्रिय धन,

यदि स्मरण करें हृदय में

पुष्पनगर में रहनेवाले को, तो

वे अदृश्य रहकर सबकी सहायता करेंगे।

(वृत्त - इंद्रवज्रा, अक्षरे ö 11, गण - )

आहे पिता तो मम माय तोची आहेच तो बंधु बहीण माझी

त्रैलोक्यराणा प्रिय देवतांसी ठेवा सुरांचा बहुमूल्य तोची।।

धावा करीता अति आर्त चित्ता धावून येतो मदतीस त्याच्या

राहे प्रभू पुष्पपुरीत नित्या अदृष्य रूपे करितो सहाय्या।।

8

देशकालातीत, अनादि, अनन्त प्रभु

तुम असंख्य जगतों के स्रष्टा,

पाता,संहर्ता हो।

अनेक जन्मोंसे मुझे मार्ग दिखाकर

कृपापूर्वक शरणागति और सेवा करवाते हो।

सुगन्ध की तरह अदृश्य

तुम दूर पर पास भी हो।

अगम्य,रहस्यमय, वाक्-मनातीत,

मधुर क्षीर की तरह,

अपका अमृततुल्य आनन्द

प्रिय भक्तोंके हृदय को

पूर्ण करता,

संसार-बन्धन-नाशक- महाप्रभु!

(अभंग - देवद्वार, अक्षरे- 6,6,6,4. चरण2,3 ला यमक. चाल - हरिपाठ- देवाचिये द्वारी उभा क्षणभरी - )

ब्रह्मांड नायक देशकालातीत अनादि अनंत प्रभु तूची

सार्‍या ब्रह्मांडाचा तूची कर्ता त्राता तयाचा संहर्ता तूची असे।।

जन्मो जन्मी दावी मजला तू मार्ग दृष्टि कृपापूर्ण ठेवी नित्य

जन्मोजन्मी देवा सेवा घडविसी तुझ्या चरणांची हेची भाग्य।।

जैसाची अदृश्य राहे परिमळ   दूर की जवळ कळो ये

तैसा तू जवळी असुनही कैसा संत-हंसा भेटेनासी।।

काया, मन, वाचा बुद्धिसी अगम्य रूप तुझे रम्य सौख्यदायी

भवभया हरी अमृताची गोडी भवाची सांगडी तूच देवा।।

(सांगडी - होडी, नाव )

9

शीघ्रता करो ,

पुष्पमालासे बाँधो उनके चरण

और कभी छोडो।

वे चकमा दे , तो भी छोडो

अद्वितीय प्रभु ने आगमन की घोषणा की,

मुझे अपना बनाया

एक ऋषि की तरह,और मुझे

दर्शन दिया।

(अभंग - देवद्वार)

सत्वरी बांधी रे    प्रभुपदी माळ   फुलांची तात्काळ    सुगंधित

सोडी चरण    देईल तो तुरी  तुझ्या हातावरी  सहजीच

ऐकू येई घोष चतुर्भुज हरी आला माझ्या घरी अलौकीक

माझा तू झालासी आली माझ्या कानी प्रभुची ती वाणी   अमृताची

कृपादृष्टी करी    जैसी संतांवरी  तैसा मला हरी    भेटलासे।।

10

हमने मृत्यु पर विजय तथा नर्क से छुटकारा पाया हैं हमने शुभाशुभ कर्मों के बंधनो का समूल उच्छेद कर दिया हैं। यह सब भगवान के पवित्र चरण कमलों सें संयुक्त होने के कारण हुआ हैं, जिन्होने त्रिपुरासुर के किले को अपनी नेत्राग्नी से भस्म कर दिया था

(अभंग - देवद्वार)

केली आम्ही आता   मृत्युवरी मात    नर्काची ती बात  आम्हा नसे

बंधक मज ना  शुभाशुभ कर्म    जाणे एक धर्म    शिव नाम

धरीन पावन  शिवाचे चरण  कमला समान    जीवे भावे

नेत्रांच्या अग्नीत जाळी जो त्रिपूर    महादेव थोर  ।। तोची माझा  ।।

11

तुम ही समूचा जंगल हो,

वन के समस्त सुंदर वृक्ष तुम हो,

वृक्षोंमे विचरण करनेवाले पशु-पक्षी तुम हो।

हे चेन्ना मल्लिकार्जुन अपने सर्वव्यापी

रूप का मुझे दर्शन दो।

(छंद - साकी, जाती- लवंगलतिका,28 मात्रा,  4 मात्रांचे 7 गण, 16J³çç मात्रेवर यति)

तूची जंगल , सारे सुंदर  वृक्ष वनातिल तूची

वृक्षांमध्ये  राहति ते ते   पशु-पक्षी ही तूची।

व्यापुन राही  मल्लिकार्जुना! सर्व जगाला तूची

रूप सुदर्शन  कमलमनोहर   मजला तव हे दावी।।

12

मैं यह नहीं कहती कि वह लिंग हैं,

मैं यह नहीं कहती कि वह लिंगात्मकता हैं,

मैं यह नहीं कहती कि वह ऐक्य हैं,

मैं यह नहीं कहती कि वह  तादात्म्य हैं ,

मैं यह नहीं कहती कि वह हुआ हैं ,

मैं यह नहीं कहती किवह  नहिं हुआ हैं ,

मैं यह नहीं कहती कि वह तुम हैं ,

मैं यह नहीं कहती कि वह मैं हैं ,

लिंग में चेन्ना मल्लिकार्जुन के साथ एक होने पर

मैं कुछ भी नहिं कहती।

(छंद - साकी, जाती- लवंगलतिका,28 मात्रा,  4 मात्रांचे 7 गण, मात्रेवर यति)

ना मी बोले  लिंग असे तो लिंगात्मक वा तो गे

ना मी बोले ऐक्य चि  आहे    नातादात्म्यचि तो गे

विश्वात्मक तो प्रकटचि झाला   झाला नाही ऐसे

आहे तोची तूच खरोखर  वा तो मीची ऐसे।

बोलत नाही काही काही एकरूप मी झाले

हरि-हर रूपी मल्लिकार्जुना संगे द्वैत उरले ।।

 

13

(छंद - साकी, जाती- लवंगलतिका,28 मात्रा,  4 मात्रांचे 7 गण,  मात्रेवर यति)

आनंदाने भरले घर हे    घरात माझ्या गाणे

प्रणवसूर हृदयात घुमे मम    मोद मनी ना मावे।

काठोकाठचि राहे भरुनी  शांती हृदयामध्ये

निवांत झाले मन, मी आता कशास जाऊ कोठे।

पंख मनाचे घेई मिटुनी निश्चल हृदयचि माझे

भटके ना ते येथे तेथे मग्न चि स्वानंदाते।

उत्साहाने अधीर होउन कोणे एके काळी

ब्रह्म पूजिण्या जातच होतो घेउन चंदन थाळी।

हृदयी माझ्या ब्रह्म दाविले गुरूने मज त्या वेळी

शोध संपला सकल सकल तो राम भेटला हृदयी।

आता जातो जेथे जेथे पवित्र तीर्थक्षेत्री

तेथे पाही लोक पूजिती दगडासी पाण्यासी

जळी स्थळी काष्ठी पाषाणी। राहे तूचि भरोनी

सत्ता चाले सर्वांवर तव रामा एक तुझी ही।

लोक शोधिती तुला प्रभुवरा व्यर्थ चि वेदांमध्ये

तेथे कैसा सापडसी तू  राहसी हृदयामधे।

सूर्य उगवता मार्ग सापडे तैसे मजसी वाटे

संपुन गेली भटकंती मम   ज्ञान तुझे मज झाले।

विलीन झाला रामानंदचि तुझ्या स्वरूपामधे

कोटि कोटि ही कर्मबंधने गळून पडली येथे।।

 

14

यदि अल्लाह केवल मस्जिद में ही रहता हैं, तो

बाकी सारा देश किसका है?

हिन्दु कहते हैँ कि भगवान मूर्ति में हैं,

मुझे दोनो में सत्य नहीं दिखता।

हे भगवन् तुम अल्ला हो या राम, मैं तुम्हारे नाम

से ही जीता हूँ, मुझ पर कृपा करो।

हरि दक्षिण में है, अल्लाह पश्चिमें।

हृदय में खोजो, तो हृदयके अन्तस्तल

में उनको विराजित पाओगे।

(वृत्त मंदाक्रांता, अक्षरे -17, गण , यति -4,6,7.)

राहे अल्ला मशिदित जरी, देश बाकी कुणाचा?

हिंदुंचाही हरि वसतसे, मूर्तिमध्येचि कैसा?

दोन्हीमध्ये मज दिसते, तथ्य ते अल्प काही

मूर्ती किंवा मशिदित कसा देव कोंडून राही?।।

देवा तूची रहिम असु दे, राम वा अन्य कोणी

उच्चारीतो मधुर तव हे, नाम रात्रंदिनी मी

झाला त्याने सकल मम हा ,जन्मची धन्य लोकी

देवा राहो मजवर तुझी, सत्कृपा नित्य ऐसी।।

राहे विष्णू कुणि म्हणतसे, दक्षिणेलाचि नित्या

अल्ला राहे, मजसि कळे पश्चिमेसीच का त्या?

कैसा देवा मज दश दिशा शोधुनी सापडेना

शोधा यासी हृदयकमळी, हा विराजीत झाला।।

 

15

(मात्रा -16,12)

                        साधो सहज समाधि भली।

गुरुप्रताप जहँ दिनसे जागी, दिन दिन अधिक चली।।1

जहँ जहँ डोलौ सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा।

जब सोवौं तब करौं  दंडवत, पूझौ और देवा।।2

कहों सो नाम,सुनौ सो सुमिरन, खावौ पिवौ सो पूजा।

गिरह उजाड एक सम लेखौं,भाव मिटावौं दूजा।।3

आँख मूँदौ,कान रूधौं, तनिक कष्ट नधारौ।

खुले नैन पहिचानो हँसि हँसि, संदर रूप नाहारौ।।4

सबद निंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।

ऊठत बैंठत कब हूँ छूटै, ऐसी तारी लागी।।5

कह कबीर यह उनमिनि रहनी, सो परकट करि गाई।

दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।6

 

(मात्रा -16,12)

                      साधो, सुगम समाधि बरी!

गुरु करणीची जादु विलक्षण,  प्रतिदिन रंगत न्यारी।।

कळे मज परि काय जाहले, येता त्याची प्रचिती

सज्जन मी हो कैसे सांगू, सुख अनुपम मी भोगी।।

डोले मी जे, परिक्रमा ती, बोलचि होय स्तुती

घडेल हातुन ती ती सेवा, झोप दंडवत पायी।।

पूजा नुरली आता मजला, देव दुजा ना नयनी

शब्द शब्द जिह्वा बोले ते, राम नाम सुखदायी।।

ऐके कानचि जे जे; ते ते, ‘सुमिरन सुमिरनमजसी

खातो पीतो  तीची  पूजा,  असे नित्य नेमाची।।

रम्य गिरी ओसाड रान वा, समान भासे दोन्ही

उरला नाही भेदभाव तो, मनात माझ्या काही।।

मिटणे डोळे, काना झाके,  कष्ट जरा ना लागे

रूप हरीचे सुंदर पाही, हसत हसत नयनाने।।

नाम एक ते बसले चित्ती , मलिन वासना गेली

उठतो बसतो परि ना उतरे, लागे अशी समाधी।।

कबीर बोलेउन्मनिहीची, प्रकट आज झाली

सुख दुःखाच्या पलीकडे त्या, ‘परमपदीमी राही।।

(सुमिरन - नामस्मरण)

16

सर्वव्यापी,स्रष्टा,घृणा भयरहित,जन्ममृत्युरहित,स्वयंभू ईश्वर का सत् नाम ओम् हैं। भगवान सत् हैं प्रेमपूर्ण हृदय से जप करनेसे जोभी व्यक्ति उनसे जो कुछ चाहेगा, वह उसे प्राप्त होगा। उसके बदले हम क्या दें कि हम उनके सामने जा सकें? अपने ओठोंसे क्या बोले? जिसे सुनकर वे हमसे और प्रेम करें? नानक कहे, वे उन्ही की दैवी कृपासे जाने जाते हैं; जो दूसरे उपाय का दावा करते हैं, वे मूर्ख, बकवासी और झूठे हैं।

(देवद्वार अभंग)

सर्वव्यापी राणा भय सतावीना घृणा नासवीना जग मांडी ।।

जन्म नसे ज्याला मृत्यु तोची कैसा अनादि पै ऐसा स्वयंभू जो ।।

एक सत्य नाम मानी ते प्रमाण ओकार पै जाण। ईश्वराचे ।।

हृदयी जपता त्यासी भक्तिभावे हवे ते ते लाभे आवडीचे ।।

काय द्यावे देवा त्याच्या बदल्यात ठेविले हातात वांछिले ते ।।

ओठावाटे काय बोलू मी रे देवा ज्याने तव प्रेमा पात्र होई ।।

बोलेची नानक देवा मिळविणे देवाचेच देणे द्यावे देवे ।।

उपाय सांगती कोणी उठाउठी व्हाया देवभेटी तेची खोटे ।।

17

गगनमें थालु रविचन्दु दीपक बने,

तारिका मण्डल जनक मोती।। 1

धुपु मलयानलो पवणु चँवरो करे,

सगल बनराइ फूलन्त जोती।। 2

कैसी आरती होइ भवखण्डना तेरी आरती,

अनाहता सबद बाजन्त भेरी।। 3

 सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ

सहस मूरति नना एक तोही।। 4

सहस पद विमल नन एक पद गंध बिनु,

सहस तव गंध इव चलत मोही।

सभ महि जोति ज्योति है सोई,

तिसदे चानणि सभ महि चनणु  होई।।5

गुरु साखी जोति परगटु होई,

जो तिसु भावे सु आरती होई।

हरिचरण मकरंद लोभित मनो,

अन दिनों मोहिं आही पिआसा।।6

कृपाजल देहि नानक सारिंग कउ

होइ जाते तेरे नाउ वासा।।7

(प्रत्येक चरणात साधारण 7 शब्द ,आरती ज्ञानराजा महा कैवल्य तेजा  च्या चालीवर- -)

गगनाच्या  तबकात   दीप सूर्य चंद्र दोन्ही तारका-गण सारे जैसे ठेवियले मोती

मलय गिरीचा हा  धूप चंदनगंधी  आरती तव कैसी  हे  भवभय-हारी।।1

पवन चौर्‍या ढाळी जगन्नाथा तुजवरी लाख लाख सुमनांनी। वनराई फुले ही।

जणु या उजळती कशा लख लख ज्योती ।आरती तव कैसी  हे  भवभय-हारी।।2

नाद हा अनाहत घुमे ओंकाररूपी हृदया मम व्यापी। त्याचा मंजूळ ध्वनी।

जणु या वाजताती भेरी तुझ्याच साठी आरती तव कैसी  हे  भवभय-हारी।।3

नेत्र सहस्र तुझे हे जग निरखिती लोक तरी वदती तुज नयने नाही

सहस्रावधि मूर्ति त्यात एकच तूची आरती तव कैसी  हे  भवभय-हारी।।4

निर्मळ पदकमळे। किति सहस्र जाणी एकची गंध परी। त्यात तुझाच येई

गंध ची  तो हृदयी दरवळे तुझाची। आरती तव कैसी   हे  भवभय-हारी।।5

जड चेतन सृष्टी त्यात चैतन्य रूपी प्रकटे तव ज्योती जी चालवी त्यांसी

विश्व सकल चाले  देवा कृपा तुझी ही आरती तव कैसी  हे  भवभय-हारी।।6

गुरूच्या उपदेशे फिटे अंधार जाळे। मन सारे उजळे ज्ञान ज्योत पाजळे

श्रद्धा अढळ धरी गुरु वचनावरती आरती तीच खरी हे भवभय हारी।।7

हरिच्या पदकमळी मधुमकरंद पाही आलो मी भुलुनी। जणु चातक पक्षी

व्याकुळ तहानेने   आता कोठे जाई आरती तव कैसी  हे  भवभय-हारी।।8

नानक तहानेला कृपाजल त्या देई ठेवी तव चरणी ही विनंती पायी

रूप तुझे बघुनी द्वैत उरले नाही आरती हीच खरी हे भवभय-हारी।।9

18

(मात्रा 11 , 13)

बन्दउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज, जासु वचन रवि निकर।।

(देवद्वार अभंग चालीवर )

वंदिन पाऊले गुरूराया तुझी कृपासिंधु हरी नररूपी

अज्ञान अंधार महामोह घोर लया नेई थोर गुरूराया

तेजस्वी भास्कर नभाच्या दारात येता पळे रात दूर जैसी

तैसे तव बोल मार्ग दावी थोर अज्ञान अंधार भेदूनीया

19

(छंद पन्ना /रेवती, मात्रा 24, यति- 6,13,19,24)

भाग छोट अभिलाष बड करऊँ एक विश्वास।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास।।19

(मात्रा 16,16)

भाषा भनिति भोरि मति मोरी हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी।।

प्रभुपद प्रीति सामुझि नीकी। तिन्हहिं कथा सुनि लागि हि फीकी।

हरि-हर पद रति मति कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।।19

 

(छंद पन्ना /रेवती, मात्रा 24, यति- 6,13,19,24)

हसतिल खल अखिल जरि मज करुनिया उपहास

प्राकृत मम बघुनि भजन सरळ सुगम अति खास

हृदयी दृढ तेवत तरी    अमल एक विश्वास

प्रभु स्तवन देईल सुख सकल सुजन हृदयास।।19

 

भक्ति नाही ज्यासी प्रीती कैसी त्यासी हरि चरणांसी म्हणे त्रास

रामकथा त्यास वाटेचि नीरस उगाचि सायास वेळ वाया

राहे ज्याच्या चित्ती हरि-हर भक्ति कुतर्क ना क्लृप्ती ज्याच्या पाशी

रामकथा त्यासी मधुर रसाळ पवित्र वेल्हाळ सौख्यदायी।।19

20

(मात्रा 16,12)

अबलौं नसानी, अब नसैहौं।

रामकृपा भव-िनसा सिरानी, जागे फिरनि डसैंहौं।।1

पायेउँ नाम चारू चिन्तामनि, उर कर तें खसैहौं।

श्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं।।2

परबस जानि हस्यो इन इन्द्रिन, निज बस व्है हसैहौं।

मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं।।3

(मात्रा 16,12)

व्यर्थचि शीणलो ,  आता शीणणे!

रामकृपे भवरातचि सरली ,  गुंडाळा अंथरुणे।।

राम-नाम चिंतामणि ठेविन ,  हृदयी सावधतेने

श्यामल राम कसोटीवर मी ,  हे कसीन चित्त सोने।।

हसली मजला गात्रे; मी ही ,  खजील परवशतेने

स्वयंसिद्ध मी झालो आता ,  कोण हसे चेष्टेने?।।

मन-मधुकर मम गातो गाणे” ,  हे तुलसीदास म्हणे

राम-चरण-कमलातचि आता  ,  राहिन मी सौख्याने।।

21

( मात्रा 8,8, 11)

भरोसा जाहि दूसरो सो करो।

मोको तो राम को नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो।।1

करम उपासन,ग्यान बेदमत, सो सब भाँति खरो।

मोहि तो सावन के अन्धहि ज्यों सूझत रंग हरो।।2

चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ पेट भरो।

सौ हौं सुमिरन नाम सुधारस पेखत परुसि धरो।।3

प्रीति- प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।

मेरे तो माय बाप दो आखर हौं सिसु अरनि अरो।।4

संकर साखि जो राखि कहौं कुछ तौ जरि जीह गरो

अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो।।5

 

( मात्रा 8, 8, 11)

              करो विश्वास दुसर्‍यावर कोणी!

परि राम नाम मज ,  कलियुगि लाभे ,  कल्पतरू फळ जाणी।।1

कर्म,अर्चना, ज्ञान, वेदमत  , खरेच सारे जरी

सावन प्रेमीसुचे मज मनी , रंग एक तो हरी’! ।।2

श्वानासम मी चाटित बसलो ,  उष्ट्या पत्रावळी

समाधान ना त्याने लाभे , भूक ही ना सरली।।3

गोड गोड तो राम नाम रस , रसना आता चाखी

राम नाम रस सेवुन झालो ,  तृप्त आज मी मनी।3

ज्यासी वाटे जेथे प्रीती ,  तो तेथे रमतो

माय बाप मम दो चि अक्षरे , राम-राम जपतो।।4

बागडतो मी त्यांच्या संगे ,  बालहट्ट करतो

दो चि अक्षर राम राम ही ,  मी चित्ती स्मरतो ।।6

असत्य वाचा जरि मी वदलो , जीभ झडो माझी

नसेचि अंतर, रसना-हृदयी  ,  शंकर या साक्षी।।6

हित मज कळले, माझे पुरते,  तुलसीदास म्हणे

आश्रय मजला रामनामची ,  दुजे कोणी जाणे।।6

22

(मात्रा -16,12)

                 और मोहि को है, काहि काहिहौं?

रंक राज ज्यो मन को मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं ।। 1

जम-जातना, जोनि-संकट सब सहे दुसह अरू सहि हौं।

मोको अगम, सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि चहि हौं ।। 2

खेलिबे को खग-मृग, तरु-कंकर ह्वै रावरो राम हौं रहिहौं।

यहि नाते नरकहुँ सचु, या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ।। 3

इतनी जिय लालसा दास के, कहत पानही गहिहौं।

दीजे बचन कि हृदय आनिये तुलसी को पन निर्बहिहौं।। 4

 

(मात्रा -16,12)

                      गुज मनिचे हरि, तुजविण कोणा सांगु?

रंक असे परि राजा व्हावे, मनोरथ कोणा सांगु?।।

जन्म मृत्युचे संकट दुःसह,  किती काळ मी साहू?

धर्म अर्थ वा काम मोक्ष फल, मज मोह त्यांचा प्रभु।।

दुर्लभ मजला आहे  परि हे,  असे सुगम तुजला प्रभु

पशु पक्षी तरु दगड करी वा,  तुझ्या हातिचा मज तू।।

खेळ होऊनी तुझ्या हातिचा,  सुख रौरवी मिळे बहु

तुझ्यावीण मज मोक्ष फिका परि,  वडवानल जाळे जणु।।

दास असे मी तुझ्या पायीचा,  ना सोडीन कधि चरणु

तुलसी निश्चय खरा करिन मी’ ,  हे वचन मजसि दे तू ।।

23

हे प्रभो सत्य को जानने वाले सन्तजनोंका कथन हैं कि राम अजन्मा ब्रह्म हैं; क्या ये वही राम हैं, जो अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र हैं या ने अजन्मा, निर्गुण,अलख अन्य कोई हैं? यदि वे राजपुत्र हैं , तो वे ब्रह्म कैसे हो सकते हैं?

(मात्रा 16, चौपाई )

प्रश्न विचारे पार्वती माता कळत नाही मजला पतिदेवा

कैसे संतचि हे रामाला   ब्रह्म अनादि मानिती सांगा।

ज्ञात असे त्यांना परमात्मा दशरथ सुत कैसाची अजन्मा

निर्गुण नित्य  - - अयोध्या  राणा! कैसे सोडवु या समिकरणा?

24

(वृत्त - चौपाई , मात्रा -16,16)

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा, गावहि मुनि पुरान बुद वेदा।

अगुन अरूप अलख अज जोई, भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

                                   -  राम चरित मानस बालकांड

(छंद देवद्वार अभंग)

सगुण निर्गुण दोन्ही विलक्षण भेदाभेद जाण तयी नसे

पुराण कीर्तन हेची सांगे सत्य सज्जनांचे मत हे ची असे

भक्त  हट्टापायी परि तेची घेई आकार तो काई भक्तांसाठी

निर्गुण ची होई सगुण साकार जैसा ज्याचा भाव तैसा हरी।।

25

(मात्रा 16,12)

जड चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बन्दउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।

(छंद देवद्वार अभंग)

जड वा चेतन जग हे समस्त राम दिसे त्यात ओतप्रोत

पाहु जाता तेथे चरण कमळे रामाची निर्मळे दृष्टी येती

म्हणुन तुलसी जोडी दोन्ही कर करी नमस्कार सर्वा पदी।।

26

(वृत्त -चौपाई , मात्रा 16,16)

ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशि।।

सो माया बस भयऊ गोसाई। बंध्यो कीर मरकट की नाई।।

माया बस्य जीव अभीमानी ईस बस्य माया गुन खानी।।

जड चेतनहि ग्रन्थि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनाई।।

(छंद देवद्वार अभंग)

ईश्वराचा अंश जीव अविनाशी राहे सुखराशी परीपूर्ण

तेची रे चैतन्य मळ नाही ज्यास नित्य सहवास त्याचा असे

परी माया राणी करी रे करणी ऐशी विलक्षणी काय सांगु

बांधी ती जीवासी वश करी त्यासी मर्कट का कपि ऐश्या रीती

अहंकार दोरी ओढिता सत्वरी नाचे तालावरी जीव तोची

त्रिगुणांची खाणी ऐसी माया राणी लीन ती चरणी आत्म्याचिया

 

 

27

(वृत्त -चौपाई , मात्रा 16,16)

ज्ञान पंथ कृपाण कै धारा। परत खगेस होहि नहिं बारा।

भगति करत बिनु जतन प्रयासा संसृति मूल अविद्या नासा।।

(छंद देवद्वार अभंग)

ज्ञानपंथ असे कृपाणाची धार निमिषार्ध फार जाया तोल

भक्ति पंथी नसे सायास तो फार अज्ञानची घोर नाशीतसे

अज्ञान सकळ भव- भयमूळ हरीता समूळ हरि दिसे।।

28

मैं राम नाम को प्रणाम करता हूँ, ब्रह्मा,िवष्णु और शिव के सदृश हैं, वेदों की आत्मा तथा अतुलनीय हैं।

(छंद देवद्वार अभंग)

रामनाम एक ब्रह्मा विष्णु रुद्र ऐसेची पवित्र वंदनीय

वेदांचे ते सार एक राम नाम तेची माझे धाम वर्णवेना

28 आणि 29 मधे मीराबाईंच्या दोन ओळी आहेत

आँखोंके जल सें सींच सींच कर प्रेम बेल को बडा किया है, उसपर जब पुष्प लगेगा, प्रभु भ्रमर बनकर आएगें

मैंने नाम जप और शास्त्रों के सार को पकडे रहकर  महान रहस्य का पता लगाया हैं। मैं अपने गिरिधर के पास आँसुओं औरप्रार्थना द्वारा पहुँची हूँ।

(छंद बालानंद/अचलगति, मात्रा 14)

आसवे शिंपून माझी लावली मी प्रीत वेली 

दृढ आधार वेदांवरी बिलगुनी ही चढली वरी

कृष्ण नामे तिज जपूनी जोपासली हळुवार ती

बहरताची ती फुलांनी ये कृष्ण भृंगचि धावुनी।।

चढुन गेले आसवांची एकेक मी ती पायरी

रहस्य थोर उलगडले मज भेटला हृदयी हरी।।

 

29

 (मात्रा -8,8)

 

 

जो नित-न्हायाँ हरि पा जाई

तो जल-जीवाँ री बात काई?

फलमूल खाई हरि पा जाई

चामड-बानर री गत काई?

तुलसी (बिरवा) पूज्योँ हरि मिले यदि

तो (म्हू) तुलसी-बन पूजूँ माई।

पाथर पूज्या हरि पाजाई

तो डूँगर ने पूजूँ जाई।

जो दूध पियाँ हरि मिले कदै

तो गो yççsçB री बात काई?

 

 

 

स्नान करुन जर,   लाभे श्रीहरी

जलचरांची मग,   बात चि न्यारी।। 

फळ मूळ खाऊन,  लाभे जर हरि

वटवाघुळ कपि,  हरि पद सेवी ।।

तुलसी पूजुन, मिळे हरि जरी

तुळशीवन मी , पूजिन माई ।।

दगडा पूजुन, लाभे जर हरि

तर मग डोंगर,   पूजिन मीही।।

दूध पिऊन जर , मिळे श्रीहरी

तर बछड्याचे, भाग्य थोरची।।

 

 

 

(मात्रा -8,8)

जो नित-न्हायाँ हरि पा जाई

तो जल-जीवाँ री बात काई?

फलमूल खाई हरि पा जाई

चामड-बानर री गत काई?

तुलसी (बिरवा) पूज्योँ हरि मिले यदि

तो (म्हू) तुलसी-बन पूजूँ माई।

पाथर पूज्या हरि पाजाई

तो डूँगर ने पूजूँ जाई।

जो दूध पियाँ हरि मिले कदै

तो गो yççsçB री बात काई?

(मात्रा -8,8)

स्नान करुन जर,   लाभे श्रीहरी

जलचरांची मग,   बात चि न्यारी।

फळ मूळ खाऊन,  लाभे जर हरि

वटवाघुळ कपि,  हरि पद सेवी

तुलसी पूजन,  करुन मिळे हरि

तुळसरान , स्मरणे अंतरि

दगडा पूजुन, हृदि भेटे हरि

तर मग डोंगर,   पूजा नित करि।

दूध पिऊन जर , मिळे श्रीहरी

रोज वासरा,  भेटे का हरि?।।

 

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तत् सत्

 

 

 


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