कौपीनपञ्चकम्


(वृत्त - इंद्रवज्रा,अक्षरे-11, गण- त त ज ग ग)

वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो  ।  भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्त:।
विशोकमन्त:करणे रमन्त:  ।  कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:।।1

कौपीन - लंगोटी, किंवा अल्पवस्त्रधारी

वेदान्त ज्याच्या मुरला स्वभावी  ।  भिक्षान्न ज्यासी सुखवी विशेषी
शोकास ना स्थान कदापि चित्ती  ।  अत्यल्पवस्त्री नर भाग्यशाली।।1



मूलं तरो: केवलमाश्रयन्त:  ।  पाणिद्वयं भोक्तुममत्रयन्त:।
कन्थामिव श्रीमपि कुत्सयन्त:  ।  कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:।।2

कन्था -ठिगळे लावलेली गोधडी किंवा संन्याशाकडे असलेली झोळी

तरूतळी राहतसे सुखाने  ।  भिक्षेस ज्या ओंजळ पात्र वाटे
द्यावीच झोळी भिरकावुनी ती  ।  आव्हेरली ज्या कमला तशी ती।।2.1
 
वैराग्य ऐसे नित प्राप्त ज्यासी । अत्यल्पवस्त्री नर भाग्यशाली।।2.2



देहादिभावं परिमार्जयन्त  ।  आत्मानमात्मन्यवलोकयन्त:।
नान्तं न मध्यं न बहि: स्मरन्त:  ।  कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:।।3

ज्याचा अहंभाव समूळ गेला  ।  अज्ञान अंधारचि नष्ट झाला
विवेक दीपे उजळून गेला  ।  त्याच्या प्रकाशी बघतो स्वत:ला।।3.1

ब्रह्मस्वरूपी रमुनीच जाता  ।  ना आदि अंतासचि जाणतो हा
ना मध्य, बाहेरचि आत वा त्या  ।  तो निर्विकल्पात विरून गेला।।3.2

ब्रह्मस्वरूपीच  विलीन होई   ।  अत्यल्पवस्त्री नर भाग्यशाली।।3.3



स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्त:  ।  सशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्त:।
अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्त:  ।  कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:।।4

स्वानंदभावे रमुनीच जाई  ।  चित्ती उठेनाचि विकल्प काही
नितांत शाती उपभोगितोची  ।  रात्रंदिनी ब्रह्म स्मरेच चित्ती।।4.1

कौपीनधारी असला जरीही  ।  कैवल्यमूर्ती नर भाग्यशाली।।4.2



पञ्चाक्षरं पावनमुच्चरन्त:  ।  पतिं पशूनां हृदि भावयन्त:।
भिक्षाशना दिक्षु परिभ्रमन्त:  ।  कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:।।5

पंचाक्षरी मंत्र ‘नम: शिवाय’  ।  जिव्हेवरी वास करी सदैव
‘साऱया जगाच्या करि पालनासी  ।  विश्वेश तो’ ज्या हृदयीच राही।।5.1

निर्वाह भिक्षेवर चालतोची   ।  ना आडकाठी कुठल्या दिशेची
सार्‍या दिशा हे घर ज्या नरासी  । अत्यल्पवस्त्री नर भाग्यशाली।।5.2

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-         आषाढ कृष्ण चतुर्दशी सावतामाळी पुण्यतिथी, 5 ऑगस्ट, 2013



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